Wednesday, July 3, 2013

कहाँ जाऊं

                            कहाँ जाऊं
आज थक गई हूँ लड़ते लड़ते
वो कन्धा  याद  आता है

जहाँ सर रख कर सुकूँ मिलता था
सब दुःख दर्द उडन छू हो जाते थे
आज चाह कर भी उस कंधे पे सर नहीं रख पाते
अजीब बिडम्बना रोना चाह  कर भी नहीं रो पाते
चीखें अंदर ही अंदर घुटती हैं
पता नहीं कब यह ज्वाला मुखी उबल पड़े
यह तख्तो यह ताजों  की दुनिया से
वो टूटे खिलौने वो अधूरे होमवर्क अछे थे
काश की आज भी हम उन कन्धों पे सर रख बेखबर हो जाते
पड़ते वो भी हैं हमारी आँखों को
जानते वो भी हैं हमारे छलनी दिल को
चुप वो भी चुप हम भी
यह चुप ही सब कह जाती है