क्या सोचूं मैं हर तरफ लोग
दो दो चेहरे लगाए घूम रहे हैं
हेर तरफ दोगलापन
रिश्ते नाते तो शायद इस गर्द में कहीं खो गए हैं
हम तो निरर्थक बालू को मुट्ठी
में भरने के प्रयास में लगे हैं
हेर तरफ भौतिग्वाद भारी है
रिश्तों के मायने तो अब इतिहास बन गए हैं
माँ भी अब ठंडी छाँव नहीं रही शायद
अब तो लोग रिश्तों को मुफ्त में भी लेने से डरते हैं
भाव चुकाने की बात तो बड़े बाद की है
सम्बन्ध अब नाम के रह गए हैं
खून की जगह अब पानी भी नहीं रहा
पता नहीं क्यूँ हम ही मृगतृष्णा के पीछे भाग रहे हैं
क्यूँ झूठी आस में जी रहे हैं
दो दो चेहरे लगाए घूम रहे हैं
हेर तरफ दोगलापन
रिश्ते नाते तो शायद इस गर्द में कहीं खो गए हैं
हम तो निरर्थक बालू को मुट्ठी
में भरने के प्रयास में लगे हैं
हेर तरफ भौतिग्वाद भारी है
रिश्तों के मायने तो अब इतिहास बन गए हैं
माँ भी अब ठंडी छाँव नहीं रही शायद
अब तो लोग रिश्तों को मुफ्त में भी लेने से डरते हैं
भाव चुकाने की बात तो बड़े बाद की है
सम्बन्ध अब नाम के रह गए हैं
खून की जगह अब पानी भी नहीं रहा
पता नहीं क्यूँ हम ही मृगतृष्णा के पीछे भाग रहे हैं
क्यूँ झूठी आस में जी रहे हैं
sarthak or umda shabdon se sazi rachana.....
ReplyDeletesaeedhi aur sachhi baat jo dil ko chhu jaye .....bahut sundar
ReplyDeleteThanks Upasna ji
ReplyDeleteThanks Aparna ji
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर और सार्थक अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteधन्यवाद राजेन्द्र कुमार जी
Deleteसच में रिश्ते आज केवल मृग मरीचिका बन कर रह गए है...बहुत सुन्दर प्रस्तुति...
ReplyDeleteधन्यवाद कैलाश जी
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