Sunday, August 26, 2012
Thursday, August 16, 2012
पैबंद
पैबंद
कितने पैबंद लगाये कोई
कहाँ तक सह पाए कोई
अब तो अनगिनत हो गई गिनती
अब तो थक गए हैं इन पैबन्दो से
मूल रूप तो खो गया शायद कहीं
किसे फुर्सत है यह महसूस करने की
अब तो थक गए पैबन्दों की दुनियां से
अगर यही जीवन है तो नहीं चाहिए
यह पैबन्दों की दुनियां
बस अब और नहीं ..............
बस अब और नहीं ................
मूल रूप चाहिए .....................
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