Thursday, August 16, 2012

पैबंद

 पैबंद
कितने पैबंद लगाये कोई
कहाँ तक सह पाए  कोई
अब तो अनगिनत हो गई गिनती
अब तो थक गए हैं इन पैबन्दो से
मूल रूप तो खो गया शायद कहीं
किसे फुर्सत है यह महसूस करने की
अब तो थक गए पैबन्दों की दुनियां से
अगर यही जीवन है तो नहीं चाहिए
यह पैबन्दों की दुनियां
बस अब और नहीं ..............
बस अब और नहीं ................
मूल रूप चाहिए .....................


4 comments:

  1. जहाँ तक हो सके किये जाओ ...हिम्मत ही जिंदगी जीने का दूसरा नाम है ....बहुत सुंदर लिखा है .....

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