पैबंद
पैबंद
कितने पैबंद लगाये कोई
कहाँ तक सह पाए कोई
अब तो अनगिनत हो गई गिनती
अब तो थक गए हैं इन पैबन्दो से
मूल रूप तो खो गया शायद कहीं
किसे फुर्सत है यह महसूस करने की
अब तो थक गए पैबन्दों की दुनियां से
अगर यही जीवन है तो नहीं चाहिए
यह पैबन्दों की दुनियां
बस अब और नहीं ..............
बस अब और नहीं ................
मूल रूप चाहिए .....................
जहाँ तक हो सके किये जाओ ...हिम्मत ही जिंदगी जीने का दूसरा नाम है ....बहुत सुंदर लिखा है .....
ReplyDeleteशुक्रिया रमा सखी
DeleteWell written.
ReplyDeleteVnnie
Thanks Vinnie ji
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